लेबनान: अक्तूबर 2019 में लेबनान की राजधानी बेरूत के शहीद चौक पर विरोध प्रदर्शन की शुरुआत हुई थी. तब वहां के हज़ारों प्रदर्शनकारियों को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि आने वाले तीन सालों में देश के ऊपर वित्तीय संकट कहीं अधिक गहरा हो जाएगा.
लेबनान में भ्रष्टाचार और आर्थिक कुप्रबंधन दशकों से पनप रहा था और अब संकट इतना विकट हो गया है कि देश की मुद्रा की कीमत 90 प्रतिशत तक गिर गयी है और महंगाई आसमान छू रही है. लेबनान की अधिकांश जनता इस भीषण ग़रीबी की चपेट में आ गयी है. लेबनान में केवल अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि राजनातिक व्यवस्था भी चरमरा गई है.
अलग-अलग दलों के बीच गतिरोध की वजह से राष्ट्रपति तक नहीं चुना जा सका है और सरकार को किसी तरह से एक कार्यवाहक राष्ट्रपति चला रहे हैं. बेरूत कभी इतना संभ्रांत और सुंदर शहर था कि उसे मध्य-पूर्व का पेरिस कहा जाता था. 1960 के दशक में इसकी ख़ूबसूरत चौड़ी सड़कों पर लोगों की भीड़ होती थी. और फिर 1970 के दशक में गृह-युद्ध शुरू हुआ जिसने देश को तोड़ना शुरू कर दिया.
देश के नियंत्रण के लिए सत्ता का संघर्ष मुसलमान और ईसाई समुदाय के बीच शुरू हुआ. इसराइल और सीरिया भी इसमें कूद पड़े. हज़ारों लोग मारे गए और कई इलाके ध्वस्त हो गए. अंत में लड़ाई ख़त्म तो हुई लेकिन एक और बदलाव आया. गृह युद्ध के लड़ाके अब राजनेता बन गए थे. और यहां से लेबनान का आर्थिक पतन शुरू हो गया.
लेबनान में 18 धार्मिक पंथों की राजनीतिक व्यवस्था में बड़ी भूमिका है. लेबनान के सामाजिक ताने-बाने और आर्थिक संकट के कारणों को कारमिन जेहा बेहतर समझती हैं.
कारमिन उन लोगों में से एक हैं जिन्हें हाल में लेबनान छोड़कर बाहर जाना पड़ा. वो एक राजनीतिक शास्त्री हैं और अब बार्सिलोना में रहती हैं और प्रवासी मामलों पर शोध कर रही हैं. उन्होंने लेबनान पर काफ़ी अध्ययन किया है.