नई दिल्ली : अंदर ही अंदर बर्फ के पिघलने से हिमालयी ग्लेशियर झीलों में तब्दील हो चुके हैं, जबकि ऊपर बर्फ की पतली चादर बची है। सैटेलाइट इसका पता नहीं लगा सके कि ग्लेशियर नीचे से खोखले हो चुके हैं। इसकी वजह से अब तक यही माना जाता रहा कि ये अक्षुण्ण बचे हैं। सैटेलाइट डाटा से सतह पर मौजूद बर्फ को मापा सकता, सतह के नीचे कितनी बर्फ और पानी है इसका अंदाजा नहीं लगता।
इससे संबंधित शोध अध्ययन नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित हुआ है। ब्रिटेन के सेंट एंड्रयूज विश्वविद्यालय और अमेरिका के कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं का दावा है 2000 से 2020 तक वृहद हिमालय क्षेत्र में पिघलकर झीलों में गिर रहे ग्लेशियरों के कुल नुकसान को 65 फीसदी कम करके आंका गया था। ग्लेशियरों के गायब होने और बड़े हिमखंड़ों के टूटने के अनुमानों के लिहाज से यह अध्ययन काफी मददगार साबित हो सकता है।
शोधकर्ताओं का दावा है कि मध्य हिमालय क्षेत्र में इस नुकसान को 10 फीसदी कम करके आंका गया। इस क्षेत्र में हिमनद झीलों का विकास सबसे तेजी से हुआ है। शोधकर्ताओं ने बताया कि गैलॉन्ग में के मामले में 65 फीसदी कम करके आंका गया। शोधकर्ताओं ने बताया कि 2000 से 2020 के दौरान प्रोग्लेशियल झीलों की संख्या में 47 फीसदी, क्षेत्रफल में 33 और आयतन में 42 फीसदी की वृद्धि हुई। इस विस्तार के नतीजतन ग्लेशियरों को लगभग 2.7 गीगाटन का नुकसान हुआ। अध्ययन के लेखक व ग्रैज टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी, ऑस्ट्रिया के शोधकर्ता टोबियस ब्लोच ने बताया कि इस अध्ययन से ग्लेशियों के बनने और मिटने के संबंध में समझ बेहतर होगी।
कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय के एक सह-लेखक डेविड रोस ने कहा, 21वीं सदी में ग्लेशियरों को होने वाले कुल नुकसान में सबसे बड़ा योगदान झीलों में जाकर खत्म होने वाले ग्लेशियरों का ही रहेगा। इस तरीके से बड़े पैमाने पर ग्लेशियर गायब हो रहे हैं, जिनका अब तक अंदाजा भी नहीं लग रहा था और यह नुकसान मौजूदा अनुमानों की तुलना में अधिक तेजी से हुआ है।