नई दिल्ली। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि पोक्सो एक्ट के मामलों में जमानत पर फैसला करते समय जजों को सावधानी बरतने की जरूरत है क्योंकि किशोरावस्था के प्यार को अदालतों की बंदिश में नहीं रखा जा सकता। न्यायामूर्ति स्वर्णा कांता शर्मा की यह टिप्पणी उच्च न्यायालय के ही न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की उस टिप्पणी के बाद आई है जिसमें उन्होंने कहा था कि यौन अपराधों से बच्चों की रक्षा (पोक्सो) अधिनियम के तहत किशोरावास्था के प्यार को अपराध की श्रेणी में रखने के प्रावधान के बारे में कुछ उपाय करने की जरूरत है।
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि फिल्मों और उपन्यासों की रोमांटिक संस्कृति की नकल करने की कोशिश करने वाले किशोर कानून और सहमति की उम्र के बारे में नहीं जानते।
उन्होंने कहा, यह अदालत यह भी कहती है कि कम के प्यार के रिश्ते, खासकर किशोरावस्था के प्यार, के प्रति रुख वास्तविक जीवन की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए ताकि उस परिस्थिति में उनके द्वारा उठाए गए कदमों को समझ सकें।
न्यायमूर्ति शर्मा की अदालत ने यह टिप्पणी 19 साल के एक लड़के की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान की, जिसमें लड़की के परिवार वालों ने भारतीय दंड संहिता की धारा 363 और 376 तथा पोक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत प्राथमिकी दर्ज कराई थी।
हालांकि न्यायमूर्ति सिंह ने दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा आयोजित एक सेमिनार में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए यह बात कही थी। सेमिनार का विषय पोक्सो के पीड़ितों का पुनर्वास: रणनीति, चुनौतियां और भविष्य की राह था।
न्यायमूर्ति शर्मा ने सुनवाई के दौरान कहा कि इस तरह के मामलों में आरोपी को जेल भेजने से वह अवसाद का शिकार होगा और उसके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा क्योंकि किशोरावस्था के प्या के मामलों में किशोर लड़के-लड़कियां जेल या सुधार गृहों में सड़ रहे हैं।
इस मामले में जांच के दौरान पाया गया कि लड़की सात महीने की गर्भवती थी और उसका गर्भपात कराया गया था। डीएनए रिपोर्ट में यह स्पष्ट हुआ कि आरोपी लड़का ही उसका जैविक पिता था।
लड़की ने अदालत को बताया कि जब वह गर्भवती हुई उस समय वह 18 साल की हो चुकी थी, हालांकि उसके अकेडमिक दस्तावेजों से इसकी पुष्टि नहीं हुई।
लड़के को राहत देते हुए अदालत ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 161 और 164 के बयानों में और अदालत के समक्ष लड़की ने बार-बार कहा है कि वह अपनी मर्जी से लड़के के साथ गई थी क्योंकि वह उसे पसंद करने लगी थी।
यह कहते हुए अदालत इस सवाल पर विचाार नहीं कर रही कि उस समय लड़की 16 साल की थी या 18 की, न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा, वादी सीआरपीसी की धारा 161 और 164 के बयानों और अदालत के समक्ष अपनी गवाही में अपनी बात पर अडिग रही है और उस आदमी का समर्थन कर रही है जिसे वह प्यार करती है, इस बात से अनजान की देश का कानून ऐसी प्रेम कहानियों के पक्ष में नहीं है। मुख्य पात्र यानी मौजूदा आरोपी कोई अपराधी नहीं है, बल्कि केवल प्यार कर बैठा और कानून के बुनियादी तथ्यों से अनजान, अपनी प्रेमिका के कहने पर उसे दिल्ली से 2,200 किलोमीटर दूर एक जगह पर ले गया जहां वे शांतिपूर्वक जी सकें।
अदालत ने कहा कि चूंकि लड़के और लड़की दोनों में से किसी ने भी पुलिस या परिवार वालों को उनके बारे में जानने से रोकने के लिए अपना मोबाइल फोन बंद नहीं किया था, इसलिए किसी आपराधिक इरादे का भी सबूत नहीं मिलता है।
अदालत ने कहा, हालांकि, यह पूरी कहानी किशोरावस्था के प्यार के बारे में किसी रोमांटिक उपन्यास या फिल्म की कहानी लगती है, वास्तविक जीवन में यह अदालत मानती है कि इसमें दो मुख्य पात्र हैं जो किशोरवस्था में हैं और एक-दूसरे से प्यार करते हैं, एक-दूसरे का साथ देते हैं और चाहते हैं कि उनका रिश्ता शादी की वैधता हासिल करे। इसके लिए लड़की के दिमाग में यही विचार आया कि उन दोनों का एक बच्चा हो।
अदालत ने कहा कि नाबालिग की सहमति की कानून के नजर में कीमत नहीं हो सकती है, इस विशेष परिस्थिति और मामले के तथ्यों के मद्देनजर एक अदालत के लिए लड़के को आरोपी ठहराना विवेकपूर्ण नहीं होगा क्योंकि उसके खिलाफ कोई आपराधिक सबूत नहीं हैं।
अदालत ने कहा, इसलिए, यह अदालत दुहराती है कि यह कोई कानून नहीं बना रही है, बल्कि सिर्फ सावधानीपूर्वक कह रही है कि इस तरह के मामलों में अदालतें किसी अपराधी के बारे में फैसला नहीं कर रही हैं, बल्कि दो ऐसे किशोरों के बारे में फैसला कर रही है जो प्यार में उस तरह का जीवन जीना चाहते हैं जो उन्हें उचित लगता है। निस्संदेह प्यार को सहमति की उम्र के बारे में पता नहीं था क्योंकि प्रेमियों को सिर्फ यह मालूम था कि उन्हें प्यार करने और जैसा उन्हें उचित लगता है वैसा जीवन जीने का हक है।
अदालत ने यह देखते हुए कि लड़के और लड़की की शादी इस महीने के अंत में होनी है, लड़के को उसकी रिहाई की तारीख से दो महीने के लिए जमानत दे दी।
अदालत ने स्पष्ट किया, यह अदालत इस मामले में जमानत देने और उपरोक्त टिप्पणी करने के साथ यह साफ करती है कि इस तरह के सभी मामलों में उनकी तथ्य और परिस्थिति के आधार पर फैसला किया जाना चाहिए।