झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने जिस बालक को गोद लिया था उस बालक का वीरगति प्राप्त होने के बाद क्या हुआ?

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लखनऊ: दामोदर राव जिनका असली नाम आनंद राव था की कहानी बड़ी दुखदायी हैं। रानी के मृत्यु के बाद उन्हें काफी कष्ट सहना पड़ा, यहां तक की भिक्षा मांग कर समय काटना पड़ा। दानी भिखारी बन गया, जिसने कभी सूखी रोटी का नाम नही सुना उसे सूखी रोटी खानी पड़ गयी। कोमल शैय्या की जगह पथरीली मिट्टी पर खुले आसमान के नीचे सोना पड़ा। कितना कष्ट भरा जीवन रहा होगा आप सोच सकते हैं। झाँसी की रानी के वंशज आज भी जीवित है किन्तु गुमनामी के अंधेरे में।

गंगाधर राव के साथ व्याही जाने के बाद लक्ष्मीबाई ने 1851 में एक पुत्र को जन्म दिया किन्तु दुर्भाग्यवश चार माह बाद ही उसकी असमय मृत्यु हो गयी। पुत्र के मृत्यु पर्यन्त झाँसी के राजा गंगाधर राव भी बीमार रहने लगे। जिसके कारण शीघ्र ही झाँसी सिंहासन के लिए उत्तराधिकारी की आवश्यकता महसूस होने लगी क्योंकि उन दिनों अंग्रेजों की एक विस्तारवादी नीति थी- राज्य हड़प की नीति(Doctrine of Lapse) जिसके अनुसार यदि किसी राज्य का उत्तराधिकारी न हो अथवा राजा के निःसंतान होने पर उसका राज्य ब्रितानी साम्राज्य का हिस्सा बन जाता था।

रानी लक्ष्मीबाई के बेटे के निधन के बाद 19 नवंबर 1853 को पांच वर्षीय आनंद राव को झाँसी के उत्तराधिकारी के रूप में गोद लिया गया। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे नहीं माना और झाँसी 1853 में अंग्रेजी साम्राज्य का हिस्सा बन गयी।

आनंद राव जो रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव नेवालकर के नाम से जाने जाते है, का जन्म झाँसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर के खानदान में 1848 ई० में हुआ था। आनंद राव के वास्तविक पिता का नाम वासुदेव राव नेवालकर था। उनके जन्म के समय राज ज्योतिषी ने उनके भाग्य में ‘राज योग’ होने तथा उनके राजा बनने की भविष्यवाणी की थीं।

रानी की मृत्यु के बाद उनके पुत्र का क्या हुआ

अंग्रेजों के राज्य हड़पने की नीति, घोर अत्याचारों तथा शोषण से त्रस्त समस्त भारत 1857 में अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए कमर कस ली तथा भारी विरोध के साथ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बज उठा। इस युद्ध में वीरांगना झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई भी अपने सहयोगियों तथा सैनिकों के साथ धरती माँ को अंग्रेजों से मुक्त करने के लिए अपना श्रेष्ठतम सहयोग दे रही थी। उन्होंने कई मोर्चों पर अंग्रेजों को परास्त किया।

युद्ध के दौरान जब अंग्रेजी सेना झाँसी के किले में प्रविष्ट हो गयी तब 4 अप्रैल 1858 को रात में रानी लक्ष्मीबाई, दामोदर राव को अपने पीठ पर बांधकर अपने चार सहयोगियों के साथ वहां से कुच कर गयी।

24 घंटे में 93 मील की दूरी तय करने के बाद वे सब काल्पी पहुँचे जहां उन्हें नाना साहब तथा तात्या टोपे मिले। वहां से वे सब ग्वालियर की तरफ निकले। अपने अंतिम दिनों में तेज होती लड़ाई के बीच महारानी ने अपने विश्वास पात्र सरदार रामचंद्र राव देशमुख को दामोदर राव की जिम्मेदारी सौंप दी।

ग्वालियर(फूलबाग) के पास युद्ध करते हुए 18 जून 1858 को रानी ने अपना बलिदान दे दिया।

महारानी के मृत्यु के पश्चात रामचंद्र राव देशमुख दो वर्षों तक दामोदर को अपने साथ लिए ललितपुर जिले के जंगलों में भटके।

रानी के मृत्यु के तीन दिन बाद तक ग्वालियर में छिप-छिप कर रहने के बाद रामचंद्र राव देशमुख तथा रघुनाथ सिंह के नेतृत्व में युद्ध में जीवित बचे रानी के 60 विश्वासपात्र दामोदर राव को लेकर चंदेरी(बुंदेलखंड) की तरफ प्रस्थान कर गये। उस समय उनके पास 60 ऊँट तथा 22 घोड़े के साथ 60,000 रुपये थे। मार्ग बहुत असहनीय था, अंग्रेजों के डर के कारण रास्ते में इन लोगों को कोई मदद भी नही देता ना ही रहने के लिये शरण। ईश्वर की अजीब लीला थी कि जिसके लिए महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण दे दिये जिन्हें वे अपने शरण में रखती थी, आज वे लोग ही उनके बेटे तथा लोगों को भोजन तक नही दे रहे थे।

किसी गाँव में रहना इन सभी लोगों के लिए असंभव हो गया था जिसके कारण ये लोग दामोदर राव को लेकर ललितपुर के जंगल की तरफ चले गये। रहने लायक व्यवस्था तथा समानों के नही रहने के कारण इन्हें खुले आसमान के नीचे घासों पर सोना पड़ता था। गर्मी के महीनों में तेज धूप के कारण शरीर की त्वचा जल जाती थीं। खाने के लिए कुछ नही रहता फलतः जंगली भुट्टे तथा फल खाने पड़ते। कुछ समय बाद वर्षाऋतु आ गयी और पूरे जंगल में बाढ़ की तरह पानी फैल गया। ये दिन सभी लोगों के लिए बहुत ही कष्टप्रद थी।

बहुत जरूरी पड़ने पर समूह से कोई एक व्यक्ति प्राण हथेलियों पर रख कर गाँव जाता तथा जरूरत की वस्तुए ले आता। इन लोगों का जीवन जानवरों से भी बदतर हो गया था। उन्हीं दिनों ईश्वर की कृपा से एक गाँव का मुखिया बहुत अनुरोध करने पर इन लोगों के मदद के लिए तैयार हो गया। वो 500 रुपया हर महीने साथ ही 9 घोड़े तथा 4 ऊँट देने के बदले इन सभी साठों लोगों के लिए आवश्यक वस्तुओं, भोजन सामग्री तथा अंग्रेजों के बारे में जानकारियाँ देता था।

वर्षा के कारण एक साथ रहना इन साठों लोगों के लिए संभव नही था जिसके कारण रघुनाथ सिंह के कहे अनुसार वे सब कई समूहों में रहने लगे। दामोदर राव के समूह में कुल 11 लोग थे जो उनकी देखरेख करते थे। कुछ दिनों बाद दामोदर राव का समूह वेत्रावती (बेतवा) नदी के पास स्थित एक गुफा में रहने लगा। इस दौरान दामोदर राव हमेशा बीमारी से ग्रस्त रहे। धीरे-धीरे सभी समूह के लोग जहां-तहां बिखर गये। जिसे जहां आश्रय मिल गया वे वहीं पहचान छिपा कर रहने लगे।

गुफा में दो वर्ष तक रहने के बाद पैसों की कमी होने लगी फलस्वरूप गाँव का मुखिया इन लोगों को कहीं और चले जाने के लिए कहा जिसके बाद बचे हुए सभी 24 लोग ग्वालियर राज्य के शिपरी-कोलरा गाँव में आश्रय लेने पहुँचे जहां इन सभी लोगों को राजद्रोही समझकर जेल भेज दिया गया तथा सारे बचे हुए घोड़े, ऊँट तथा अन्य संसाधन जब्त कर लिये गये।

जेल से छूटने के बाद कई दिनों तक पैदल चलने के पश्चात वे सब झलारापतन पहुँचे, वहां पहले से ही समूह के कई लोग शरण लेकर रह रहे थे जिनका संबंध झाँसी के रानी से था। उन लोगों ने इन सभी की हरसंभव मदद की तथा उन्हीं में से एक नन्हेखान थे जो झाँसी में रिसालदार थे। नन्हेखान महारानी के मृत्यु के पश्चात झालावाड़-पतन में आकर रहने लगे थे तथा एक अंग्रेज अधिकारी मिस्टर फ्लिंक के दफ्तर में काम करते थे। नन्हेखान ने दामोदर राव को मिस्टर फ्लिंक से मिलवाया तथा दामोदर राव के लिए पेंशन की व्यवस्था करने के लिए प्रार्थना की। मिस्टर फ्लिंक दयालु स्वभाव के थे, उन्होंने इंदौर में अपने समकक्ष एक अंग्रेज अधिकारी रिचर्ड शेक्सपियर को झाँसी की रानी के बेटे को पेंशन देने के लिए संदेश भेजा। जिसके जबाव में रिचर्ड शेक्सपियर ने कहा कि यदि दामोदर राव सरेंडर कर देंगे तो हम उनके लिए पेंशन का व्यवस्था कर सकते।

कुछ दिन तक झालावड़-पतन में बंदीगृह में रहते समय झालावड़-पतन, राजस्थान के राजा पृथ्वीसिंह चौहान से दामोदर राव की मुलाकात हुयी। पृथ्वीसिंह चौहान ने भी अंग्रेज अधिकारी को सिफारिश पत्र भेजकर कहा था ये लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र हैं, इनका संरक्षण किया जाए।

उसके बाद झालावड़पतन से दामोदर राव अपने सहयोगियों के साथ इंदौर के लिए निकल पड़े। रास्ते में पैसों की कमी के कारण नही चाहते हुए भी उन्हें अपनी माँ रानी लक्ष्मीबाई द्वारा दी हुयी दोनों कंगन बेचने पड़े जो उनकी आखिरी निशानी उनके पास बची हुयी थी। इंदौर पहुंचने पर दामोदर राव को 200 रुपया प्रति माह पेंशन मिलने लगी तथा साथ में केवल 7 लोगों को रखने की ही अनुमति मिली।

झाँसी के रानी के वंशज इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं।

जब दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे तब इंदौर में रहते हुए उनकी चाची जो दामोदर राव की असली माँ थी। बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह करवा देती है लेकिन कुछ ही समय बाद दामोदर राव की पहली पत्नी का देहांत हो जाता है। दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया।

अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।

दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं। लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे।

अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है।

(Vnation News इसकी सत्यता की पुष्टि नहीं करता है)

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