डिफॉल्टर होने के करीब पहुंचा अमेरिका! हिलेगी पूरी दुनिया, लाखों नौकरियों पर मंडराया खतरा

0 220

नई दिल्ली: दुनिया की सबसे बड़ी इकॉनमी अमेरिका (US Economy) के लिए हर तरफ से निगेटिव खबर आ रही है। हाल में देश के दो बड़े बैंक डूब गए और कई डूबने के कगार पर हैं। लोगों ने कुछ ही दिनों में बैंकों से कुछ ही दिनों में एक लाख करोड़ डॉलर से अधिक निकाल लिए। इससे बैंकों की हालत और खस्ता हो गई है। डॉलर को पूरी दुनिया में कड़ी चुनौती मिल रही है। कई देशों ने डॉलर के बजाय अपनी करेंसी में ट्रेड करना शुरू कर दिया है। अमेरिका का डेट टु जीडीपी रेश्यो (debt to GDP ratio) रेकॉर्ड पर पहुंच गया है। अमेरिका पर पहली बार डिफॉल्ट करने का खतरा मंडरा रहा है। जुलाई तक डेट सीलिंग (debt ceiling) नहीं बढाई गई तो तबाही आ सकती है। अगर अमेरिका ने डिफॉल्ट किया तो 70 लाख से अधिक नौकरियां एक झटके में खत्म हो जाएगी और जीडीपी में पांच फीसदी गिरावट आएगी। इसका असर भारत समेत पूरी दुनिया पर होगा।

अमेरिका की वित्त मंत्री जेनेट येलन ने जनवरी में चेतावनी दी थी कि अमेरिका जून तक कर्ज के भुगतान में डिफॉल्ट कर सकता है। अमेरिका डेट लिमिट को पार कर चुका है। येलन ने संसद से जल्दी से जल्दी डेट लिमिट बढ़ाने का अनुरोध किया था। अगर अमेरिका ने कर्ज के भुगतान में डिफॉल्ट किया तो इससे अमेरिका की इकॉनमी को भारी नुकसान होगा, लोगों की जिंदगी दूभर हो जाएगी और ग्लोबल फाइनेंशियल स्टैबिलिटी पर इसका व्यापक असर होगा। डेट लिमिट वह सीमा होती है जहां तक फेडरल गवर्नमेंट उधार ले सकती है। 1960 से इस लिमिट को 78 बार बढ़ाया जा चुका है। पिछली बार इसे दिसंबर 2021 में बढ़ाकर 31.4 ट्रिलियन डॉलर किया गया था। लेकिन यह इस सीमा के पार चला गया है।

देश में डेट टु जीडीपी रेश्यो साल 2022 में 120 फीसदी पहुंच गया जो दूसरे विश्व युद्ध के दौर से भी ज्यादा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद साल 1945 में यह 114% था। पिछले दो साल में इसमें बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। साल 2020 से अब तक अमेरिका का कुल कर्ज 8.2 लाख करोड़ डॉलर बढ़ चुका है जबकि पहले 8.2 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने में इसे 230 साल लगे थे। माना जा रहा है कि अमेरिका का कर्ज 2033 तक 51 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है। यानी अगले दस साल में इसमें 20 ट्रिलियन डॉलर की बढ़ोतरी हो सकती है।

इस बीच पूरी दुनिया से अमेरिकी डॉलर को दबदबे को चुनौती मिल रही है। अमेरिकी डॉलर ने लगभग आठ दशकों तक दुनिया की इकॉनमी पर राज किया है। इसे दुनिया के सबसे सुरक्षित असेट्स में से एक माना जाता है। आपसी कारोबार के लिए विश्व इस करंसी पर निर्भर रहा है, लेकिन अब कई देश डॉलर से दूरी बनाना चाहते हैं। इस कारण डॉलर का भविष्य में कितना प्रभुत्व रहेगा, इस पर सवाल उठ रहे हैं। चीन ने सऊदी अरब, फ्रांस, रूस और ब्राजील के साथ कई सौदे अपनी करेंसी में किए हैं। ब्रिक्स देश यानी ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका ने एक नई करेंसी विकसित करने की घोषणा की है। ब्राजील के राष्ट्रपति ने अपने लोगों से अमेरिकी डॉलर से छुटकारा पाने को कहा है।

भारत ने भी कई देशों के साथ अपनी करेंसी में ट्रेड करना शुरू कर दिया है। ब्राजील के फॉरेक्स रिजर्व में दूसरी सबसे बड़ी करेंसी युआन है। इसी तरह रूस के रिजर्व में 33 फीसदी युआन है। रूस की कंपनियों ने पिछले साल युआन में बॉन्ड जारी किए। अमेरिका में बैंकिंग क्राइसिस के बीच लोगों ने अरबों डॉलर क्रिप्टो और गोल्ड में झोंक दिए हैं। 10 मार्च से बिटकॉइन की कीमत 45 फीसदी चढ़ चुका है और सोना 2000 डॉलर प्रति ओंस को पार करने की तरफ बढ़ रहा है। दो हफ्ते में अमेरिकी बैंकों से 225 अरब डॉलर निकल गए। दुनिया के फॉरेक्स रिजर्व में कभी डॉलर का हिस्सा 72 परसेंट था जो अब घटकर 59 फीसदी रह गया है।

अमेरिका ने अब तक कभी भी डिफॉल्ट नहीं किया है, इसलिए पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि इसका क्या असर होगा। Moody’s Analytics के चीफ इकनॉमिस्ट Mark Zandi के मुताबिक अगर अमेरिका ने डिफॉल्ट किया तो इससे लाखों लोगों की नौकरी जा सकती है और देश मंदी की चपेट में आ सकता है। इससे 70 लाख लोगों की नौकरी जा सकती है और देश 2008 की तरह वित्तीय संकट में फंस सकता है। साल 2011 में अमेरिका डिफॉल्ट के कगार पर था और अमेरिका सरकार की परफेक्ट AAA क्रेडिट रेटिंग को पहली बार डाउनग्रेड किया गया था। इससे अमेरिका शेयर मार्केट में भारी गिरावट आई थी जो 2008 के फाइनेंशियल क्राइसिस के बाद सबसे खराब हफ्ता था।

डिफॉल्ट होने की स्थिति में सरकार कई तरह के बिलों का भुगतान नहीं कर पाएगी। इससे लाखों लोगों को वित्तीय सहायता नहीं मिल पाएगी। इससे सोशल सिक्योरिटी, मेडिकेयर और मेडिक्रेड, बुजुर्गों के लिए सपोर्ट प्रोग्राम, फूड और हाउसिंग प्रोग्राम अटक जाएंगे। 2022 में 6.6 करोड़ लोगों को सोशल सिक्योरिटी का फायदा मिला था। देश के 10 लाख से अधिक सैनिकों की सैलरी पर भी खतरा पैदा हो सकता है। डिफॉल्ट से देश का क्रेडिट स्कोर भी प्रभावित होगा जिससे अमेरिकी लोगों के लिए कॉस्ट बढ़ सकती है। अमेरिका का ट्रेजरी बॉन्ड्स रिस्क फ्री माने जाते हैं क्योंकि अमेरिका ने कभी भी इनके पेमेंट में डिफॉल्ट नहीं किया है। लेकिन डिफॉल्ट के बाद इनवेस्टर्स ज्यादा इंटरेस्ट मांगेंगे। सभी तरह के इंटरेस्ट रेट बॉन्ड्स से जुड़े होता हैं। यानी डिफॉल्ट का सभी पर असर होगा।

अगर अमेरिका ने कर्ज के भुगतान में डिफॉल्ट किया तो सभी आउटस्टेंडिंग सीरीज ऑफ बॉन्ड्स प्रभावित होंगे। इनमें ग्लोबल कैपिटल मार्केट्स में जारी किए गए बॉन्ड्स, गवर्नमेंट टु गवर्नमेंट क्रेडिट, कमर्शियल बैंकों और इंस्टीट्यूशनल लेंडर्स का साथ हुए फॉरेन करेंसी डिनॉमिनेटेड लोन एग्रीमेंट शामिल है। साथ ही सरकार और सरकारी संस्थाओं द्वारा किया जाने वाला भुगतान भी प्रभावित होगा। किसी देश के डिफॉल्ट करने पर उसे बॉन्ड मार्केट से पैसा उठाने से रोका जा सकता है। खासतौर से तब तक के लिए जब तक कि डिफॉल्ट का समाधान नहीं हो जाता और निवेशकों को भरोसा नहीं हो जाता कि सरकार भुगतान करना चाहती है और उसके पास क्षमता भी है।

देशों के पास डिफॉल्ट होने की स्थिति में कई विकल्प होते हैं। कई बार कर्ज को रिस्ट्रक्चर किया जाता है। यानी कि इसकी ड्यू डेट को आगे बढ़ा दिया जाता है। इसी तरह करेंसी को ज्यादा किफायती बनाने के लिए इसका डिवैल्यूएट किया जाता है। डिफॉल्टर होने के बाद कई देश खर्च करने के लिए कई तरह के उपाय करते हैं। उदाहरण के लिए अगर कोई देश कर्ज चुकाने के लिए अपनी करेंसी को डिवैल्यूएट करता है तो उसके प्रॉडक्ट्स एक्सपोर्ट के लिए सस्ते हो जाते हैं। इससे मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री का फायदा होता है जिससे इकॉनमी को बूस्ट मिलता है और कर्ज का भुगतान आसान हो जाता है।

 

नोट: अगर आपको यह खबर पसंद आई तो इसे शेयर करना न भूलें, देश-विदेश से जुड़ी ताजा अपडेट पाने के लिए कृपया Vnation के Facebook पेज को LikeTwitter पर Follow करना न भूलें...
Leave A Reply

Your email address will not be published.