लखनऊ: दुनिया में कोई भी कौम ऐसी नहीं है जो कोई एक खास दिन त्यौहार के रूप में न मनाती हो। इन त्योहारों में एक तो धार्मिक आस्था विशेष रूप से देखने को मिलती है दूसरा अन्य सम्प्रदायों व तबकों के लोगों को उसे समझने और जानने का अवसर मिलता है। अगर मुसलमानों के पास ईद है तो हिंदुओं के पास दीपावली है। ईसाइयों की ईद बड़ा दिन अर्थात क्रिसमस है तो सिखों की ईद गुरु पर्व है। इस्लाम में मुख्यत: दो त्योहारों का जिक्र आता है। पहला है ईद-उल-फितर। इसे मीठी ईद और छोटी ईद भी कहा जाता है। यह त्यौहार रमजान के 30 रोजे रखने के बाद मनाया जाता है। दूसरा है ईद-उल-जुहा। इसे ईद-उल-अजहा अथवा बकरा-ईद (बकरीद) और बड़ी ईद भी कहा जाता हैं। इस बार ईद-उल-जुहा 11 जुलाई दिन रविवार को मनाया जायेगा|
ईद-उल-जुहा हज के बाद मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस्लाम के 5 फर्ज होते हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। हर मुसलमान के लिए अपनी सहूलियत के हिसाब से जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज के संपूर्ण होने की खुशी में बकरीद का त्यौहार मनाया जाता है। पर यह बलिदान का त्यौहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से लिया जाता है।
कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़ कर देखते हैं वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानि अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना। इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्यौहार ईद-उल-जुहा। वैसे बकरीद शब्द का बकरों से कोई रिश्ता नहीं है और न ही यह उर्दू का शब्द है। असल में अरबी में ‘बक़र’ का अर्थ है बड़ा जानवर जो जिब्ह (कुर्बान) किया जाता है। उसी से बिगड़कर आज भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश में इसे ‘बकरीद’ कहते हैं। वास्तव में कुर्बानी का असल अर्थ ऐसे बलिदान से है, जो दूसरों के लिए दिया गया हो। जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है कि किस तरह हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम (बाइबल में अब्राहम) ने अल्लाह के लिए हर प्रकार की कुर्बानी दी। यहां तक कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे बेटे तक की कुर्बानी दे दी लेकिन खुदा ने उन पर रहमत की और बेटा जिंदा रहा। हजरत इब्राहीम चूंकि अल्लाह को बहुत प्यारे थे इसलिए उनको ‘खलीलुल्लाह’ की पदवी भी दी गई है। कुर्बानी उस जानवर को जिब्ह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जिलहिज्जा (अर्थात हज का महीना) को खुदा को प्रसन्न करने के लिए दी जाती है। कुरान में लिखा है, “हमने तुम्हें हौज-ए-कौसर दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज पढ़ो और कुर्बानी करो।”
वैसे तो इस पावन पर्व की नींव अरब में पड़ी, मगर तुजक-ए-जहांगीरी में लिखा है : “जो जोश, खुशी और उत्साह भारतीय लोगों में ईद मनाने का है, वह तो समरकंद, कंदहार इस्फाहान, बुख़ार, .खोरासां, बगदाद, और तबरेज जैसे शहरों में भी नहीं पाया जाता, जहां इस्लाम का आगमन भारत से पहले हुआ। बादशाह सलामत जहांगीर अपनी रिआया के साथ मिलकर ईद-उल-जुहा मनाते थे। गैर मुसलिमों के दिल को चोट न पहुंचे इसलिए ईद वाले दिन शाम को दरबार में उनके लिए विशेष शुद्ध वैष्णव भोजन हिंदू बावर्चियों द्वारा ही बनाए जाते थे। बड़ी चहल-पहल रहती थी। बादशाह सलामत इनाम-इकराम भी खूब देते थे। मुगल बादशाहों ने कुर्बानी के लिए गाय कुर्बान की सख्त मनाही की थी क्योंकि हमारे देश में गाय को गोमाता के नाम से माना जाता है। यह करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ी है इसलिए सरकार ने गाय की कुर्बानी करने पर पाबंदी लगायी है।
बकरीद वास्तव में न सिर्फ अकबर व जहांगीर के समय धूम धाम से मनाया जाता था बल्कि आज भी ईद-उल- जुहा का जो असली मनोरंजन है, वह भारत में ही देखने को मिलता है। ईद वाले रोज ऐसा लगता है कि मानो यह मुसलमानों का ही नहीं, हर भारतीय का पर्व है।
आइये एक नज़र ईद-उल-जुहा के इतिहास पर डालें। ईद-उल-जुहा का इतिहास बहुत पुराना है जो हजरत इब्राहीम से जुड़ा है। हजरत इब्राहीम आज से कई हजार साल पहले ईरान के शहर ‘उर’ में पैदा हुए थे। जिस वातावरण में उन्होंने आंखें खोलीं, उस समाज में कोई भी बुरा काम ऐसा न था जो न हो रहा हो। इब्राहीम ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो सारे कबीले वाले और यहां तक कि परिवार वाले भी उनके दुश्मन हो गए। हजरत इब्राहीम का ज्यादातर जीवन रेगिस्तानों और तपते पहाड़ों में जनसेवा में बीता। संतानहीन होने के कारण उन्होंने एक संतान प्राप्ति के लिए खुदा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की थी जो सुनी गई और उन्हें चांद सा बेटा हुआ। उन्होंने अपने इस फूल से बेटे का नाम इस्माईल रखा। जब इस्माईल की उम्र 11 साल से भी कम थी तो एक दिन हजरत इब्राहीम ने एक ख़्वाब देखा, जिसमें उन्हें यह आदेश हुआ कि खुदा की राह में सबसे प्यारी चीज कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सबसे प्यारे ऊंट की कुर्बानी दे दी। मगर फिर सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। मगर तीसरी बार वही सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। इतना होने पर हजरत इब्राहीम समझ गए कि अल्लाह को उनके बेटे की कुर्बानी चाहिए। वह जरा भी न झिझके और उन्होंने अपनी पत्नी हाजरा से अपने प्यारे लाडले को नहला-धुलाकर कुर्बानी के लिए तैयार करने को कहा। हाजरा ने ऐसा ही किया क्योंकि वह इससे पहले भी एक अग्निपरीक्षा से गुजरी थीं, जब उन्हें हुक्म दिया गया कि वह अपने बच्चे को जलते रेगिस्तान में ले जाएं।
हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम बुढ़ापे में रेगिस्तान में पत्नी और बच्चे को छोड़ आए। बच्चे को प्यास लगी। मां अपने लाडले के लिए पानी तलाशती फिरी, मगर उस बीहड़ रेगिस्तान में पानी तो क्या पेड़ की छाया तक न थी। बच्चा प्यास से तड़पकर मरने लगा। यह देखकर हजरत जिब्रईल ने हुक्म दिया कि फौरन चश्मा अर्था तालाब जारी हो जाए। पानी का फव्वारा हजरत इस्माईल के पांव के पास फूटा और रेगिस्तान में यह करामत हुई। उधर, मां सोच रही थी कि शायद इस्माईल की मौत हो चुकी होगी। मगर ऐसा नहीं था। वह जीवित रहे। अब इस घटना के बाद जब हाजरा को यह पता चला कि अल्लाह के नाम पर उनके प्यारे बेटे का गला उनके पिता द्वारा ही काटा जाएगा, तो हाजरा स्तब्ध हो गईं। मानों वह मां नहीं, कोई पत्थर की मूरत हों। जब हजरत इब्राहीम अपने प्यारे बेटे इस्माईल को कुर्बानी की जगह ले जा रहे थे तो शैतान (इबलीस) ने उनको बहकाया कि क्यों अपने जिगर के टुकड़े को जिब्ह करने पर तुले हो, मगर वह न भटके। हां, छुरी फेरने से पहले नीचे लेटे हुए बेटे ने पिता की आंखों पर रूमाल बंधवा दिया कि कहीं ममता आड़े न आ जाए और हाथ डगमगा न जाएं। पिता ने छुरी चलाई और आंखों पर से पट्टी उतारी तो हैरान हो गए कि बेटा तो उछलकूद रहा है और उसकी जगह जन्नत से एक दुम्बा भेजा गया और उसकी कुर्बानी हुई। यह देखकर हजरत इब्राहीम की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने खुदा का बहुत शुक्रिया अदा किया। यह खुदा की ओर से इब्राहीम की एक और अग्निपरीक्षा थी। तभी से जिलहिज्जा के महीने में जानवर की बलि देने की परंपरा चली आ रही है।