नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि सभी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एसटी) अपने सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक दर्जे के हिसाब से बराबर नहीं हो सकतीं। न्यायालय इसका परीक्षण कर रहा है कि क्या राज्य कोटा के अंदर कोटा देने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को उप-वर्गीकृत कर सकते हैं? इस दौरान कोर्ट ने यह भी कहा है कि आरक्षण की नीति को स्थिर नहीं करना चाहिए, इसमें समय और आवश्यक्ता के हिसाब से परिवर्तन लाना चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात जज की संविधान पीठ ने 23 याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि वे (एससी/ एसटी) एक निश्चित उद्देश्य के लिए एक वर्ग हो सकते हैं। लेकिन, वे सभी उद्देश्यों के लिए एक वर्ग नहीं हो सकते हैं। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ‘इसलिए, इस अर्थ में एकरूपता है कि उनमें से प्रत्येक अनुसूचित जाति का है। लेकिन आपका तर्क यह है कि समाजशास्त्रीय प्रोफाइल, आर्थिक विकास, सामाजिक उन्नति, शिक्षा उन्नति के संदर्भ में भी कोई एकरूपता नहीं है।”
पीठ ने कहा कि ‘पिछले व्यवसाय के संदर्भ में विविधता है, अनुसूचित जाति के अंदर विभिन्न जातियों के लिए सामाजिक स्थिति और अन्य संकेतक भिन्न हो सकते हैं। इसलिए, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन की डिग्री एक व्यक्ति या जाति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न हो सकती है।’
संविधान पीठ ने यह टिप्पणी ‘इस कानूनी सवाल की समीक्षा को लेकर की जा रही सुनवाई के दूसरे दिन की है, जिसमें यह पता लगाया जा रहा है कि क्या राज्य सरकार को शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है या नहीं।’ संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के अलावा न्यायमूर्ति बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला एम त्रिवेदी, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र मिश्रा भी शामिल हैं।
केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने संविधान पीठ के समक्ष ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों के संविधान पीठ के 2004 के फैसले के निष्कर्षों का विरोध किया और कहा कि यह राज्य को आरक्षण के क्षेत्र को उचित रूप से उप-वर्गीकृत करके उचित नीति तैयार करने से रोकता है और अवसर की समानता की संवैधानिक गारंटी को कम करता है। उन्होंने कोटा के भीतर कोटा का समर्थन करते हुए पीठ से यह भी कहा कि केंद्र सरकार सैकड़ों वर्षों से भेदभाव झेल रहे लोगों को समानता दिलाने के लिए सकारात्मक कार्रवाई के उपाय के रूप में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की घोषित नीति के लिए प्रतिबद्ध है।
वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने भी समाज के वंचित वर्गों के बीच वास्तविक समानता सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकारों को एससी और एसटी को उप-वर्गीकृत करने का अधिकार दिए जाने की मांग की। उन्होंने पीठ से कहा कि 21वीं सदी में हम उन लोगों के लिए समानता की बात कर रहे हैं जो सदियों से अपमानित और वंचित रहे हैं। सिब्बल ने भी चिन्नैया मामले में 2004 में पारित फैसले का विरोध करते हुए कहा कि इसमें अनुसूचित जाति को गलत तरीके से एक समरूप समूह माना गया है। उन्होंने कहा कि यह धारणा कि एससी एक समरूप समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं, यह तथ्यात्मक आंकड़े और विश्लेषण पर आधारित नहीं थी।
इस पर वरिष्ठ अधिवक्ता सिब्बल ने पीठ से कहा कि पंजाब में लगभग 32 फीसदी अनुसूचित जाति की आबादी है और राज्य को समाज के सबसे कमजोर वर्ग के समर्थन के लिए विशेष व्यवस्था करने से नहीं रोका जा सकता है। इस पर मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने ‘संपत्ति रखने और चुनाव लड़ने जैसे कई अधिकारों के लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं करने के लिए संविधान निर्माताओं की सराहना की। उन्होंने कहा कि ‘हमारा संविधान दुनिया का पहला संविधान था, जिसने संपत्ति, शिक्षा, लिंग के संबंध में शिक्षा को पूर्व शर्त नहीं बनाया। यह आस्था का अनुच्छेद था और एक बहुत ही दूरदर्शी प्रावधान था। उन्होंने कहा कि हमारा दुनिया पहला संविधान था जिसमें लैंगिक या संपत्ति के आधार पर चुनाव कराने या चुनाव लड़ने के अधिकार को सशर्त नहीं बनाया।
सुप्रीम कोर्ट उन 23 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है, जिसमें पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के 2010 के फैसले को चुनौती दे दी गई है। इसमें पंजाब सरकार की मुख्य अपील भी शामिल है। हाईकोर्ट ने 2010 में पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 की धारा 4(5) को रद्द कर दिया था, जो सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए निर्धारित आरक्षण में 50 फीसदी सीटों पर ‘वाल्मीकि’ और ‘मजहबी सिख’ जातियों को पहली प्राथमिकता प्रदान करती थी।