मुंबई : ये वाली ओएमजी पुरानी ओएमजी (2012 वाली) से एकदम अलग है। यह ए सर्टिफिकेट फिल्म उन लोगों के लिए है, जो एडल्ट होने वाले हैं या नए-नए एडल्ट हुए हैं। फिल्म का विषय एक मायने में वैसा ही क्रांतिकारी है, जैसा विक्की डोनर या पैडमैन फिल्म में था। यह सेक्स एजुकेशन की वकालत करती है। कोर्ट के बहुत सारे सीन हैं। बहस में एक पक्ष कहता है कि स्कूल में शिक्षा ढंग से नहीं मिलती, इसलिए स्कूल दोषी है। दूसरा बचाव पक्ष कहता है कि यह तो शिक्षा प्रणाली का तर्क है, इसमें स्कूल का क्या दोष? पहला पक्ष कहता है कि अगर टाटा कंपनी का ट्रक किसी को टक्कर मार दे तो ड्राइवर पर केस करेंगे या रतन टाटा पर, बताओ?
मुझे यह फिल्म देखते समय दृश्यम फिल्म की याद आई, जिसमें हीरो अपनी बेटी को गैरइरादतन हत्या के आरोप से बचाने के लिए हर सीमा तक जाता है। इस फिल्म में हीरो अपने बेटे को एक प्रकरण में स्कूल से निकाले जाने के खिलाफ हर सीमा तक जाता है। दुकान छिन जाती है, घर छिन जाता है, पर बंदा है महाकाल का भगत! महाकाल उसे राह दिखाते जाते हैं, बंदा चलता जाता है। अब महाकाल तो ठहरे महाकाल! वे अपने हिसाब से ही काम करते हैं। वे मरे हुए हीरो को ज़िंदा कर देते हैं, पर हीरो के विरोधियों को अक्ल नहीं देते, वरना कहानी बीच में ही खत्म हो जाती। पंकज त्रिपाठी का बोलचाल का अंदाज मालवी है।
इंदौर के फिल्म पत्रकार पराग छापेकर (लेखक-पत्रकार रोमेश जोशी के दामाद, जो मुंबई में बस गए हैं) की भी भूमिका है और कहानीकार तेजेंद्र शर्मा की बेटी आर्या शर्मा का रोल भी है। गोविंद नामदेव, प्रवीण मल्होत्रा, अरुण गोविल भी अच्छी भूमिकाओं में हैं। अक्षय कुमार बीच-बीच में प्रकट होते रहते हैं। पंकज त्रिपाठी को अब लोग कालीन भैया नहीं, बल्कि कांति मुद्गल के नाम से ही जानेंगे, तय है। अगर आप महाकाल के भक्त हैं तो पुजारियों के न्यायालयीन विवादों के बावजूद फिल्म अच्छी लगेगी। गेल्येपने के कई सीन हैं, पर वे मनोरंजक हैं। विषय नया, फिल्म मनोरंजक है। पैसे वसूल हो जाते हैं।