यादों में सिमट गए हैं झूले, गांवों में भी विलुप्ति की कगार पर है सावन संस्कृति

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लखनऊ: आधुनिकता की दौड़ में संस्कृति पीछे छूटती जा रही है। और पुरानी परंपराएं विलुप्त होती जा रही है। एक समय था कि सावन आने का लोग बेसब्री से इंतजार करते थे। साथ ही सावन माह के आगमन से पूर्व मोहल्ले, गली गाँव में पेडों पर झूले पड़ने की तैयारियां होने लगती थी। सावन माह की शुरूआत होते ही पेडों पर झूले पड़ जाते थे। पेडों पर पड़े झूले को झूलने के लिए सहेलियां समूह बनाकर झूला झूलने पहुँचती थी। एवं सभी आपस में सावन के गीत गाती थी।

मीठी-मीठी ध्वनि के साथ सावन माह का स्वागत करती थी। साथ तीज और रक्षाबंधन का त्यौहार नजदीक आते ही शादीशुदा युवतियों को अपने मायके जाने का बेसब्री से इंतजार रहता है। मगर आधुनिकता की दौड़ में संस्कृति और पुरानी परंपराएं पीछे छूट दी जा रही हैं। अब ना ही किसी गांव मोहल्ले में झूले दिखाई देते हैं और ना ही कहीं सावन के गीतों की धुन सुनाई देती है। गांव में बाग बगीचे पेड़ों के नष्ट होने के चलते सावन में झूला झूलने की परंपरा लगभग लुप्त होती जा रही है।

लेकिन आज के समय में पुरानी परंपराओं की जगह फेसबुक फ्रेंड्स ने ले ली है। सोशल मीडिया पर लोग इतने एक्टिव हो गए हैं की वह अपनी संस्कृति और पुरानी परंपराओं को भूलते जा रहे हैं। पुराने समय में मनोरंजन के सीमित साधन थे। इसलिए त्योहारों के लोग आपसी भाईचारा बढ़ाने के साथ मनोरंजन भी करते थे। सावन का पूरा महीना त्योहार के रूप में मनाया जाता था। इसलिए पहले सावन मां में झूला झूलने और सावन के गीत गाने की परंपरा होती थी। पहले संयुक्त परिवार का करते थे बुजुर्गों का फैसला ही पूरे घर को मन होता था। इससे परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे से जुड़े रहते थे। आज के समय में ज्यादातर परिवार एकल परिवार हो गए हैं इससे आपस में दूरियां बढ़ती जा रही हैं।

आज के समय में मोबाइल और सोशल मीडिया का दौर आने से सब कुछ बदल सा गया है। लोग अपनी संस्कृति और पुरानी परंपराओं को बोलते जा रहे हैं। गांव मोहल्लों में युवतियां समूह बनाकर पेड़ों पर पड़ने वाले झूले पर झूलने जाती थी। झूला झूल कर अपने उत्साह का संचार करती थी। लेकिन आज के समय में गांव में ना तो कोई समूह रह गया है और ना ही के झूले पड़े हुए दिखाई दे रहे हैं। सहेलियों और दोस्तों के समूह की जगह फेसबुक फ्रेंडस ने ले ली है। आज के समय में सावन के गीतों से लेकर मनोरंजन की हर चीज गूगल व यूट्यूब पर उपलब्ध है। इसलिए लोग अपनी पुरानी संस्कृति और परंपरा को भूलते हुए जा रहे हैं।

पहले सावन के माह में गांव में पेड़ों पर झूले पड़ते थे। लड़कियां समूह बनाकर झूला झूलने के लिए जाती थी। और झूला झूलते समय सावन के गीतों को गाया जाता था। लेकिन आज के दौर में सब कुछ बदल सा गया है। आज के समय सावन का महीना सिर्फ कावड़ यात्रा तक ही सीमित रह गया है, जिसमें आस्था से ज्यादा दिखावा है, डीजे पर भजनों के बजाय तरह तरह के गानों पर डांस होता है। धीरे-धीरे पुरानी परंपराएं विलुप्त होती जा रही है।आज के समय में महिलाएं हो या पुरुष सभी सोशल मीडिया में व्यस्त हैं, सावन माह में झूला झूलने का किसी को शौक ही नहीं रहा, आज के दौर में सावन महीने की रंगत फीकी पड़ गई है। सब कुछ मोबाइल तक ही सीमित होकर रह गया है।

पुराने समय में सावन का महीना आने का बेसब्री से लोगों का इंतजार रहता था, झूला डालने की तैयारी पहले से ही होने लगती थी, सावन महीने की शुरुआत होते ही पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे, लेकिन आज के समय में कहीं झूला नहीं

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