श्री लंका के हाल बेहाल, दिवालिया होने से बचने के लिए बेचना शुरू किया “देश का सोना”

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श्रीलंका की अर्थव्यवस्था बहुत बुरी हालत में पहुंच चुकी है, जिसको बचाने के लिए श्रीलंका ने अपना गोल्ड रिजर्व बेचना शुरू कर दिया है। श्रीलंका के केंद्रीय बैंक के गवर्नर निवार्ड कैब्राल ने कहा है कि श्रीलंका ने दिसंबर 2020 में अपने सोने के भंडार के एक हिस्से को लिक्विड फॉरेन एसेट्स को बढ़ाने के लिए बेच दिया है. उन्होंने कहा कि चीन से करेंसी स्वैप (डॉलर के बजाय एक-दूसरे की मुद्रा में व्यापार करना) के बाद साल के अंत में गोल्ड रिजर्व को बढ़ाया गया था.
इकोनॉमी नेक्ट्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अनुमान है कि श्रीलंका के केंद्रीय बैंक ने 2021 की शुरुआत में 6.69 टन सोने के भंडार में से लगभग 3.6 टन सोना बेचा था, जिससे उसके पास लगभग 3.0 से 3.1 टन सोना रह गया था.2020 में भी केंद्रीय बैंक ने सोना बेचा था. साल की शुरुआत में 19.6 टन सोने का भंडार था जिसमें से 12.3 टन सोना बेच दिया गया. गवर्नर कैब्राल ने कहा कि सोने की बिक्री विदेशी मुद्रा के भंडार को बढ़ावा देने के लिए थी. उन्होंने कहा, ‘जब विदेशी भंडार कम होता है तो हम सोने की होल्डिंग को कम करते हैं. जब विदेशी भंडार बढ़ रहा था तो हमने सोना खरीदा. एक बार जब रिजर्व स्तर 5 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक बढ़ जाएगा तो केंद्रीय बैंक सोने की होल्डिंग बढ़ाने पर विचार करेगा.’श्रीलंका के प्रमुख अर्थशास्त्री और सेंट्रल बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर डॉ. डब्ल्यू. ए विजेवर्धने ने सोना बेचे जाने को लेकर श्रीलंका के अखबार डेली मिरर से बातचीत की है. उन्होंने श्रीलंका की स्थिति की तुलना 1991 के भारत से की है जब भारत ने खुद को दिवालिया होने से बचाने के लिए सोना गिरवी रखा था.उन्होंने कहा, ‘सोना एक रिजर्व है जिसे किसी देश को डिफ़ॉल्ट के कगार पर होने पर अंतिम उपाय के रूप में उपयोग करना होता है. इसलिए जब कोई दूसरा विकल्प उपलब्ध न हो तो सोने की बिक्री संयम से की जानी चाहिए. भारत ने भी 1991 में अपना सोना गिरवी रखा था.’उन्होंने आगे कहा, ‘भारत की सरकार ने इसे देश से छुपाया लेकिन कहानी बाहर आई और सरकार की छवि खराब हुई लेकिन तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने बाद में लोकसभा में स्वीकार किया कि देश के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था. तो श्रीलंका द्वारा आज सोने की बिक्री का मतलब है कि देश की स्थिति 1991 के भारत जैसी ही है.’साल 1991 में उदारीकरण से पहले भारत की अर्थव्यवस्था इतनी खराब हालत में थी कि दो बार सोना गिरवी रखना पड़ा था. पहली बार सोना गिरवी रखने की नौबत तब आई जब यशवंत सिन्हा वित्त मंत्री थे और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री. उस दौरान अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों ने भारत की रेटिंग गिरा दी थी. भारत के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दिवालिया हो जाने का खतरा मंडराने लगा था. भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खाली हो गया था.
ऐसे मुश्किल समय में अंतिम विकल्प के रूप में सोना गिरवी रखने का फैसला किया गया. 20 हजार किलो सोने को चुपके से मई 1991 में स्विट्जरलैंड के यूबीएस बैंक में गिरवी रखा गया. इनके बदले में सरकार को 20 करोड़ डॉलर मिले थे.सोना गिरवी रखने के बाद भी भारत की अर्थव्यवस्था को कोई खास लाभ नहीं हुआ. सरकार के पास विदेशी आयात के भुगतान के लिए पैसे नहीं थे. विदेशी मुद्रा का भंडार लगभग खाली हो चुका था. 21 जून 1991 को पीवी नरसिम्हा राव की सरकार आई. इस सरकार में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बनाया गया. नई सरकार के पास दिवालिया हो रहे देश को बचाने की चुनौती थी. ऐसे में एक बार फिर सोना गिरवी रखा गया जिसकी खबर देश को नहीं दी गई.40 करोड़ डॉलर के बदले में 47 टन सोना गिरवी रखा गया. इस खबर को इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार शंकर अय्यर ने ब्रेक कर दिया जिसके बाद देश को सोना गिरवी रखे जाने की बात पता चली. हालांकि, बाद में जब आर्थिक स्थिति सुधरी तो उसी साल सोना वापस खरीद लिया गया.

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