दुनिया को हो गया भरोसा, भारत बनेगा नया ‘कारखाना’; दिखने लगे संकेत

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नई दिल्ली: इस बात पर बहस तेज हो गई है कि क्या भारत, चीन से ‘दुनिया का कारखाने’ वाला तमगा छीन सकता है. इसीलिए दुनिया भर की नजरें भारतीय अर्थव्यवस्था पर लगी हुई हैं. चीन लगभग तीन दशकों तक ग्लोबल ग्रोथ का मुख्य चालक या ड्राइवर रहा है. उसने 1990 और 2020 के बीच ग्लोबल ग्रास डोमेस्टिक प्रोडक्ट एक्सपेंशन में एक चौथाई से अधिक का योगदान दिया है. 2013 से 2021 के पीरियड में चीन ने ग्लोबल जीडीपी ग्रोथ में लगभग 39 फीसदी का योगदान दिया. अगर इसकी तुलना जी-7 में शामिल सभी देशों से की जाए तो यह 13 फीसदी अधिक है.

रिपोर्ट के अनुसार चीन का अनुकरण करने के लिए भारत को लगभग तीन दशकों तक करीब दो अंकों की विकास दर बनाए रखने की जरूरत है. इसके अलावा उसे ग्लोबल मैन्यूफैक्चरिंग सप्लाई चेन को इंटीग्रेट करने, एक एक्सपोर्ट पावरहाउस में बदलने और भारी विदेशी निवेश आकर्षित करने की जरूरत होगी. हालांकि यह एक कठिन काम है. लेकिन भारत आज खुद एक ऐसे पर मोड़ है जहां चीन 40 साल पहले खड़ा था.

चीन का उत्थान 1970 के दशक में दुनिया को आकार देने वाले प्रमुख राजनीतिक और आर्थिक कारकों का परिणाम था. उस समय की भू-राजनीति ने 1971 में अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिम को चीन के लिए खुलने के लिए प्रेरित किया. उस समय अमेरिकी-सोवियत प्रतिद्वंद्विता गहरी हो रही थी. चीन-सोवियत के बीच दूरी होने लगी थी. इस सबने चीन के लिए एक अनुकूल माहौल बनाया. क्योंकि उसने 1970 के दशक के अंत में सुधार शुरू किए थे.

चीन के साथ बढ़ते स्ट्रेटैजिक कॉम्पीटिशन के कारण, आज भारत के प्रति पश्चिम में भी इसी तरह का झुकाव मौजूद है. बीजिंग की बढ़ती कूटनीतिक और आर्थिक ताकत की वजह से उसकी विदेश नीति में आक्रामकता पैदा हुई. इसके कारण पश्चिम को अहसास हुआ कि उसकी चीन पर अतिनिर्भरता चिंतित करने वाली है. इसने, अमेरिका और उसके सहयोगियों को चीन के साथ अपनी साझेदारी को रीवैल्यूट करने और जोखिम कम करने के विकल्प तलाशने के लिए मजबूर किया है. इसीलिए भारत एक पसंदीदा भागीदार के रूप में उभर रहा है.

अतीत में चीन के पक्ष में काम करने वाला एक अन्य कारक यह था कि उपरोक्त जियो-पालिटिकल बदलाव उस समय के साथ हुआ था जब ग्लोबल बिजनेस, अधिक कम्पीटिशन की तलाश में, अपनी बढ़ती ऑपरेशनल लागत को कम करने के लिए सक्रिय रूप से एशिया में ऑफशोर डेस्टिनेशन की तलाश कर रहे थे. संयोग से, 1970 के दशक में चीन-अमेरिका मेल-मिलाप के बाद, सस्ते श्रम के विशाल पूल से संपन्न चीन का बाजार एक आकर्षक विकल्प बन गया.

एक बार फिर, इसी तरह का रिऑर्गनाइजेशन चल रहा है. गहरी होती चीन-अमेरिकी प्रतिद्वंद्विता ने वॉशिंगटन को प्रमुख तकनीकी वस्तुओं तक उनकी पहुंच को प्रतिबंधित करने के लिए चीनी कंपनियों पर एकतरफा और बहुपक्षीय निर्यात प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर किया है. चीन ने भी जैसे को तैसा उपाय के रूप में विदेशी कंपनियों के लिए सख्त नियामक अनुपालन जरूरतों को लागू किया है. वॉशिंगटन और बीजिंग द्वारा लागू नियामक चुनौतियों की दोहरी मार से मजबूर होकर, चीन में काम करने वाली विदेशी कंपनियां अपने नए निवेश को चीन से दूर रिडायरेक्ट करना चाह रही हैं. इसलिए भारत एक विश्वसनीय विकल्प के रूप में उभरा है.

ऐसा लगता है कि भारत सरकार भी डी-रिस्किंग रणनीति से होने वाले लाभ का अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहती है, जो कि आईफोन के निर्माण और सेमीकंडक्टरों की असेंबली से जुड़ी हाई-प्रोफाइल प्रोजेक्ट का समर्थन करने में उसकी गहरी दिलचस्पी से साफ है. अंततः, चीन को बढ़ते उपभोक्ता आधार का लाभ मिला जो उसके किसी भी एशियाई प्रतिस्पर्धी के पास नहीं था, जिससे उसे विशेष बढ़त मिली. इसका उपभोक्ता बाजार अगले दशकों में व्यावसायिक निर्णयों को प्रभावित करने में तेजी से महत्वपूर्ण हो गया. समय के साथ, चीन में बढ़ती श्रम मजदूरी के नुकसान की भरपाई उसके श्रम की कौशल प्रतिस्पर्धात्मकता और बढ़ते उपभोक्ता आधार से हो गई.

भारत के पास भी आज इसी तरह के फायदे हैं. वर्तमान में उसके पास 50 करोड़ से अधिक का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता आधार है. जिसे प्रतिदिन 12 डॉलर से अधिक खर्च करने वाले लोगों के रूप में परिभाषित किया गया है. चीन 90 करोड़ के उपभोक्ता आधार के दम पर पहले स्थान पर मौजूद है. अनुमान बताते हैं कि 2030 तक, भारत का उपभोक्ता आधार बढ़कर 73 करोड़ हो जाएगा, जो चीन के करीब 100 करोड़ से पीछे रहेगा. यहां से चीन और भारत के बीच की दूरी कम ही होगी.

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