चीन ने जासूसी सैटेलाइट के बजाय गुब्बारा ही क्यों चुना? जानिए कैसे करता है काम

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नई दिल्ली : चार फरवरी 2023 को अमेरिकी वायु सेना (US Air Force) के एफ22 रैप्टर फाइटर जेट (fighter jet) से निकली Aim-9 साइडविंडर मिसाइल (missile) ने मार गिराया. इस गुब्बारे (balloons) को उड़ाने में अमेरिका के करीब 10 लाख डॉलर्स यानी 8.24 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं. Aim-9 शॉर्ट रेंज की हवा से हवा में मार करने वाली मिसाइल है. 1953 से लगातार अमेरिका इसे बना रहा है. 85.3 किलोग्राम वजन वाली यह मिसाइल 9.11 फीट लंबी होती है.

इस मिसाइल में इसमें एन्यूलर ब्लास्ट फ्रैगमेंटेशन वॉरहेड लगाया जाता है. जिसका वजन 9.4 किलोग्राम होता है. यह 3087 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से दुश्मन की ओर बढ़ती है. खैर अमेरिका के इस हरकत से चीन नाराज है. पर कुछ कर नहीं पा रहा है. चीन के इस नापाक चाल की पूरी दुनिया में चर्चा हो रही है. खैर अब ये बात जरूरी है कि हम उस फाइटर जेट के बारे में भी जान लें, जिससे यह मिसाइल दागी गई थी.

अमेरिका ने दुनिया के पहले पांचवीं पीढ़ीं के फाइटर जेट एफ-22 रैप्टर (F-22 Raptor) से मिसाइल दाग कर चीन के जासूसी गुब्बारे को मार गिराया. एफ-22 रैप्टर फाइटर जेट क्लोज रेंज डॉगफाइटिंग और बेयॉन्ड विजुअल रेंज के लिए यह प्रसिद्ध है. इसे एक पायलट उड़ाता है. इसकी लंबाई 62.1 फीट, विंगस्पैन 44.6 फीट और ऊंचाई 16.8 फीट है. अधिकतम गति 2414 KM/घंटा है.

कॉम्बैट रेंज 850 KM है. फेरी रेंज 3200 KM है. यह अधिकतम 65 हजार फीट की ऊंचाई तक जा सकता है. इसमें 20 मिमी का वल्कन रोटरी कैनन लगा है. इसमें 4 अंडर विंग हार्ड प्वाइंट्स हैं. इसमें हवा से हवा और हवा से जमीन पर मार करने वाली 8-8 मिसाइलें लगाई जा सकती हैं.

जासूसी गुब्बारा (Spy Balloon) असल में गैस से भरा गुब्बारा होता है जो उस ऊंचाई पर उड़ता है जिस ऊंचाई पर आम नागरिक विमान उड़ते हैं. इसके नीचे बेहद जटिल कैमरे या इमेजिंग टेक्नोलॉजी लगी होती है. ये जमीन की तरफ देखते हुए अलग-अलग हिस्सों, इमारतों, क्लासीफाइड जगहों, खुफिया स्थानों की तस्वीरें लेते हैं. यानी तस्वीरों के जरिए जितनी ज्यादा सूचनाएं जमा हो सकें. ये कर सकते हैं.

अंतरिक्ष से जासूसी करने के लिए आमतौर पर सैटेलाइट्स का इस्तेमाल होता है. लेकिन ऐसे खुफिया गुब्बारों का इस्तेमाल कोई क्यों करना चाहता है. असल में सैटेलाइट्स को अलग-अलग ऑर्बिट में रखा जाता है. इसलिए मनाचाहा डेटा या तस्वीर नहीं मिल पाती. धरती की निचली कक्षा पर घूमने वाले सैटेलाइट बहुत क्लियर फोटो नहीं ले पाते. लेकिन विमान की ऊंचाई पर उड़ने वाले जासूसी गुब्बारे ये काम आसान से कर देते हैं.

सैटेलाइट अगर धरती का चक्कर लगा रहा है तो उसे उसी प्वाइंट पर आने में करीब 90 मिनट लगेंगे. इसलिए फोटो में दिक्कत आती है. लेकिन गुब्बारे के साथ ऐसा नहीं है. ये एक जगह पर काफी देर तक रुक सकता है. लगातार तस्वीरें ले सकता है. दूसरे सैटेलाइट्स जो जियोसिंक्रोनस ऑर्बिट में हैं. उनकी तस्वीरें बहुत कम ही स्पष्ट होती हैं.

जासूसी गुब्बारा के नीचे मेटालिक प्लेटफॉर्म पर कई तरह के कैमरे लगाए जा सकते हैं. आजकल जासूसी के लिए इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम वाले कैमरों और राडारों की जरुरत पड़ती है. वो भी लग जाते हैं. इसमें विजिबल स्पेक्ट्रम पर फोकस ज्यादा रहता है. यानी सामान्य कैमरे जैसे. ये लगातार फोटो ले सकते हैं. जूम इन, जूम आउट कर सकते हैं. इसके अलावा इन पर नाइटटाइम, इंफ्रारेड कैमरा भी लगाए जा सकते हैं.

आमतौर पर जासूसी करने वाले गुब्बारे हवा के बहाव के साथ बहते हैं. लेकिन इनका नेविगेशन किसी तरह के फ्यूल इंजन से किया जा सकता है. हालांकि ये मौसम के रहमोकरम पर होते हैं. कई बार गाइडिंग यंत्र लगाए जाते हैं ताकि गुब्बारे की दिशा तय की जा सके. अमेरिकी प्रशासन ने दावा किया है कि चीन के गुब्बारे में प्रोपेलर लगे थे, ताकि उसका दिशा तय की जा सके. हालांकि अभी गुब्बारे के हिस्सों की जांच चल रही है. पूरी सच्चाई जांच के बाद ही पता चलेगी.

अगर कोई विमान या उड़ने वाली चीज कारमान लाइन यानी 100 किलोमीटर की ऊंचाई से नीचे उड़ रहा है तो वह उसकी नीचे मौजूद देश के एयरस्पेस में माना जाता है. चीन का यह गुब्बारा तो हवाई जहाज की ऊंचाई पर था. यानी अमेरिकी एयरस्पेस में था.

पिछले कुछ दशकों से अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन इन गुब्बारों की ताकत, क्षमता आदि पर स्टडी कर रहा है. पहले इस्तेमाल भी कर चुका है. लेकिन जो बदनाम देश हैं, उनमें सोवियत संघ है. इन्होंने ऐसे गुब्बारों का इस्तेमाल 1940 से 1960 के बीच करते था. उत्तर कोरिया और चीन भी इस तरह के काम करता आया है.

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