राम लालप्राण-प्रतिष्ठा के असर से BJP यूपी में लोकसभा सीटों का तोड़ पाएगी रिकॉर्ड, आइये जाने

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नई दिल्ली : 2014 केंद्र में दोबारा सत्ता हासिल करने के बाद से राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी का दखल बढ़ता ही जा रहा है. और उसी राजनीतिक दबदबे के बूते बीजेपी ने 2019 में ज्यादा सीटें जीत कर अपने स्कोरकार्ड में काफी सुधार किया था – और अब उससे भी आगे बढ़ने की कोशिशें जारी हैं.

लोक सभा चुनावों में 1984 में कांग्रेस के प्रदर्शन को सबसे बड़ी जीत के रूप में देखा जाता है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 400 से ज्यादा सीटें हासिल हुई थीं – देखा जाये तो बीजेपी भी इस बार चुनावी राजनीति के उसी मोड़ पर पहुंच चुकी है.

1984 में जैसी कांग्रेस की लहर थी, राम मंदिर उद्घाटन समारोह को लेकर इस बार बीजेपी के पक्ष में भी करीब करीब वैसा ही माहौल महसूस किया जा रहा है. कांग्रेस के बराबर न सही, लेकिन सवाल उठता है कि क्या बीजेपी 2024 में 400 के आंकड़े को छू पाएगी?

ऐसे में जबकि देश की राजनीति में उत्तर और दक्षिण की बहस चल रही है. जब बीजेपी यूपी में अयोध्या समारोह को सफल बनाने में जुटी है, तो उसका बहिष्कार करते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी मणिपुर से भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर निकल चुके हैं, और INDIA ब्लॉक के ज्यादातर नेता अयोध्या समारोह के समानांतर अपनी मिलती-जुलती व्यस्तता जाहिर कर रहे हैं – ऐसे में माहौल में उत्तर प्रदेश की अहमियत अपनेआप बढ़ जाती है.

1. बीजेपी कितनी सीटें जीत सकती है?

1984 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस ने यूपी की 85 में से 83 सीटें जीत ली थी – देखना होगा 2024 के आम चुनाव में बीजेपी को यूपी की 80 सीटों में से कितना मिल पाती हैं?

जिस तरह से यूपी में राम मंदिर के उद्घाटन का असर देखा जा रहा है, और मुलायम परिवार से लेकर गांधी परिवार तक जो हाल है – बीजेपी के लिए चुनावी राह ज्यादा मुश्किल नहीं रह गई है, अभी के हिसाब से तो ऐसा ही समझा जा सकता है.

2. यूपी में पिछले प्रदर्शन क्या इशारा करते हैं?

1984 के चुनाव में भी यूपी के नतीजों ने निर्णायक भूमिका निभायी थी. तब यूपी में 85 लोक सभा सीटें हुआ करती थीं. उत्तराखंड बनने के बाद से यूपी के पास 80 और उत्तराखंड के पास 5 लोक सभा की सीटें हो गई हैं.

2014 के आम चुनाव में बीजेपी को 71 सीटें मिली थीं, जबकि सहयोगी अपना दल के 2 सांसद लोक सभा पहुंचे थे. बची हुई सात सीटों में से 5 मुलायम सिंह यादव के परिवार को मिलीं, और दो गांधी परिवार को. मायावती को जीरो बैलेंस से संतोष करना पड़ा था.

2019 के लोक सभा चुनाव में अखिलेश यादव के साथ चुनावी गठबंधन करके मायावती 10 सीटें जीतने में सफल रहीं. अखिलेश यादव को पत्नी डिंपल यादव की हार का दर्द झेलना पड़ा था, लेकिन समाजवादी पार्टी 5 सीटें जीतने में सफल रही. कांग्रेस के हिस्से में एक ही सीट आई, क्योंकि अमेठी सीट राहुल गांधी से बीजेपी की स्मृति ईरानी ने झटक ली – ऐसे में बीजेपी की सीटें घट कर 62 पर पहुंच गईं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘परीक्षा पे चर्चा’ कार्यक्रम के दौरान जब कठिन प्रश्नों का जिक्र आया तो उनकी सलाह थी कि छात्र अपनी विभिन्न चीजों के लिए समय आवंटित कर लें. प्रधानमंत्री मोदी का कहना है, ‘ये एक सामान्य प्रवृत्ति है कि व्यक्ति अपनी पसंद की चीजों को अधिक समय देता है… किसी भी विषय के लिए समय आवंटित करते समय दिमाग के तरोताजा होने पर सबसे कम रोचक या सबसे कठिन विषय लेना चाहिये.’

बीजेपी के सामने यूपी की ज्यादा से ज्यादा सीटें जीत लेने के मामले में फिलहाल सिर्फ दो ही बाधाएं लगती हैं – एक, गांधी परिवार, मुलायम परिवार और चौधरी चरण सिंह के परिवार के गढ़ माने जाने वाले इलाके – और दूसरा, मुस्लिम वोट बैंक.

यूपी में अमेठी और रायबरेली, दोनों ही लोक सभा सीटें गांधी परिवार का गढ़ मानी जाती रही हैं. दोनों ही सीटों पर बीजेपी ने 2014 से पहले से ही काम करना शुरू कर दिया था. 2014 में राहुल गांधी को बीजेपी की स्मृति ईरानी ने जोरदार टक्कर दी थी. स्मृति ईरानी भी मोदी की तरह गुजरात से ही चुनाव लड़ने यूपी आई थीं. मोदी ने बनारस का रुख किया, और ईरानी ने अमेठी का.

हार के बावजूद स्मृति ईरानी अपने मिशन में जुटी रहीं, और उनकी बदौलत बीजेपी ने 2019 में अमेठी को झटक लिया था, और इस बार रायबरेली को लेकर भी वैसी ही तैयारी है. कांग्रेस खेमे से दिनेश प्रताप सिंह के जरिये बीजेपी ने शह तो 2019 में दे ही दिया था.

डिंपल यादव की हार की भरपाई के लिए अखिलेश यादव को थोड़ा इंतजार करना पड़ा. काफी मशक्कत के बाद अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव की मैनपुरी सीट से डिंपल यादव को लोक सभा पहुंचा कर परिवार का दबदबा कायम रखा है, और यही वजह है कि बीजेपी समाजवादी पार्टी के प्रभाव वाली सीटों को लेकर कारगर रणनीति पर काम कर रही है.

समाजवादी पार्टी के दबदबे वाली सीटों की बात करें तो उपचुनावों में बीजेपी ने आजमगढ़ और रामपुर झटक लिये थे – आने वाले दिनों में मैनपुरी के साथ साथ कन्नौज जैसी सीटों पर बीजेपी का ज्यादा फोकस होगा.

1984 के आम चुनाव में जब कांग्रेस की लहर में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और हेमवंती नंदन बहुगुणा जैसे दिग्गज नेता गच्चा खा गये थे, पश्चिम यूपी में चौधरी चरण सिंह ने अपना दबदबा कायम रखा था – और जिन दो सीटों पर कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था, वे चौधरी चरण सिंह के इलाके की ही थीं. बागपत सीट से तो खुद चौधरी चरण सिंह ही चुनाव जीते थे.

बीते कई चुनावों से जीत का इंतजार कर रहे चौधरी चरण सिंह के परिवार को 2024 में भी उम्मीद तो रहेगी ही. अगर INDIA ब्लॉक की वजह से विपक्ष के हिस्से में जाने वाले वोट नहीं बंट पाये, और एक दूसरे को ट्रांसफर हो जायें तो आरएलडी नेता जयंत चौधरी भी बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं.

राजनीति में रिश्ते बहुत मायने रखते हैं. ताजा उदाहरण तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का आरजेडी नेता लालू यादव घर पहुंच कर चूड़ा-दही खाने की पहल में देखा जा सकता है, चुनावी राजनीति में भी ऐसे तमाम उदाहरण मिलते हैं.

2012 में अखिलेश यादव के यूपी का मुख्यमंत्री बन जाने के बाद कन्नौज सीट खाली हो गयी तो उपचुनाव हुआ. तब समाजवादी पार्टी की तरफ से डिंपल यादव को उम्मीदवार बनाया गया. अखिलेश यादव के साथ साथ मुलायम सिंह यादव भी 2009 के चुनाव में राज बब्बर से डिंपल की हार से काफी दुखी थे.

मुलायम सिंह यादव की बहू होने की वजह से कांग्रेस और बीएसपी ने अपने उम्मीदवार न उतारने का फैसला किया था, और बीजेपी ने भी प्रकारांतर से वैसा ही किया. आखिरी वक्त में बीजेपी ने उम्मीदवार के रूप में जगदेव सिंह यादव के नाम की घोषणा की, लेकिन वो समय रहते अपना नामांकन नहीं दाखिल कर पाये – और फिर डिंपल यादव निर्विरोध चुन कर लोक सभा पहुंच गईं.

ऐसी ही मददगार विरोध बीजेपी की तरफ से 2014 में भी महसूस किया गया, तभी तो पूरी समाजवादी पार्टी हार गई लेकिन मुलायम सिंह यादव दो सीटों से और उनका परिवार जीत गया था, लेकिन नये दौर की बीजेपी में किसी को ऐसी गलतफहमी नहीं पाल लेनी चाहिये. जैसे जंग में सब कुछ जायज माना जाता है, बीजेपी आने वाला चुनाव बिलकुल उसी तरीके से लड़ने जा रही है. मतलब, कोई लिहाज नहीं, किसी की कोई परवाह नहीं.

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